बुधवार, 13 जनवरी 2010

विवेकानंद मंत्र



स्वदेश मंत्र
ऐ भारत ! क्या दूसरों की ही हाँ में हाँ मिलाकर, दुसरों की ही नकल कर, दूसरों का ही मूँह ताककर इस दासों की-सी दुर्बलता, इस घृणित, जघन्य निष्ठुरता से ही तूम बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करोगे? क्या ङसी लज्जास्पद कापुरषता से तुम वीरभोग्य स्वाधीनता प्राप्त करोगे? ऐ भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं; मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्बत्यागी उमानाथ शंकर हैं; मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और तुम्हारा जीवन इन्द्रियसुख के लिये - व्यक्तिगत सुख के लिये - नही है। मत भूलना कि तुम जन्म से ही माता के लिये बलिस्वरुप रखे गये हो, मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट् महामाया की छायामात्र है; तुम मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं। ए बीर! साहस का आश्रय लो। गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हैं और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है; बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं; तुम भी केवल कमर में ही कपड़ा लपेट गर्व से पुकारकर कहो कि भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देवदासियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारतवासी भारत का समाज मेरी शिशुसज्या, मेरे यौवन का उपवन और सेरे वार्धव्य की वाराणसी है। भाई बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है; और रातदिन कहते रहो कि --- “हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दो। माँ मेरी दुर्बलता और कापुरषता दूर कर दो, माँ मुझे मनुष्य बना दो।” स्वामी विवेकानन्द

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